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वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता / वरवर राव
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वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता
ग्रीष्म से मिलकर आता है ।
झरे हुए फूलों की याद
शेष रही कोंपलों के पास
नई कोंपलें फूटती हैं
आज के पत्तों की ओट में
अदृश्य भविष्य की तरह ।
कोयल सुनाती है बीते हुए दुख का माधुर्य
प्रतीक्षा के क्षणों की अवधि बढ़कर स्वप्न-समय घटता है ।
सारा दिन गर्भ आकाश में
माखन के कौर-सा पिघलता रहता है चांद ।
यह मुझे कैसे पता चलता
यादें, चांदनी कभी अलग होकर नहीं आती
रात के साथ आती है ।
सपना कभी अकेला नहीं आता
व्यथाओं को सो जाना होता है ।
सपनों की आँत तोड़ कर
उखड़ कर गिरे सूर्य बिम्ब की तरह
जागना नहीं होता ।
आनन्द कभी अलग नहीं आता
पलकों की खाली जगहों में
वह कुछ भीगा-सा वज़न लिए
इधर-उधर मचलता रहता है ।
रचनाकाल : 4.3.1988