भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पकी पकी फ़सल / लावण्या शाह

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:25, 28 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लावण्या शाह }}{{KKAnthologyBasant}} {{KKCatKavita}} <poem> पकी पकी फसल लहराए…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पकी पकी फसल लहराए ओढ़े पीली सरसों की चुनरिया
तेरे खेत में मक्का-बाजरा, मेरे, गेहूँ की बालियाँ
गाँव-गाँव घूम रही टोलियाँ, होलिका-दहन तैयारी
किसी की खाट, किसी का पाट, किसीली के हाथ लकड़ियाँ!

नीला, पीला, हरा, जामुनी, नारंगी, लाल रंग सजा है
प्रकृति ने करवट बदली है, टेसू सा रंग खिला है!
दरी-दरी कूक रही है, हूक उठाती, कारी-कारी कोयलिया
किसलय के चिकने पात छिप, झाँक रही, शर्मीली गोरैय्या

मंद सुगंध पुरवा से मिल कर परिमल पाँव पसारे
आमरा मंजरी ऊँची टेहनी से, फागुन की तान, सुनावे!
"पीहू पीहू कहाँ मेरे पिय?" पपीहा बैन पुकारे
गोरी की, प्रेम-अगन, नयनां जल पी, ज्वाला बन देखावे।

"हे विधाता! क्यों भेज्यो फागुन?" बिरहा जिया अकुलाए
"पिया बिनु कैसे होरी? कैसी आए ये ऋत अलबेली?"
फागुन फगुनाया, हँस पड़ी कमलिनी पोखर में
हाथ बढ़ा कर उसे तोड़ कर चढ़ा दिया शिव पूजन में!

"माँगूँ तुमसे भोले बाबा! मेरे पिया मुझे लौटा दो!
दिया फागुन का वर तो शंभू! प्रियतम भी लौटा दो!"
नेत्र मूँद कर नई दुल्हनिया, मंदिर में दीप जलावे
बिछुड़ पिय की माला जपती, मन ही मन, मंद-मंद मुस्कावे!