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नदी-3 / श्याम बिहारी श्यामल
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वह चाहती थी
सूखी धरती को तर करना
मरुथल को हरा-भरा
राह रोकी पर्वतों ने
आड़े आईं चट्टानें
मगर वह रुकी नहीं
मुड़-मुड़कर निकली आगे
वह टूटी नहीं
पराजित झुकी नहीं
सूरज को निगला
चाँद को गले उतारा
आकाश काँप उठा
अब आँखें उसकी भासित थीं
वह बिफ़र रही थीं
निकली थी महासमर में
रणचंडी बनकर