शिशिर-प्रभंजन / महेन्द्र भटनागर
शीत ऋतु
तलवार की कटु धार-सा
चलता पवन !
निर्जन गगन में
घन कहीं कड़का,
कहीं पर काँपती करका !
सघन तम,
बरसता है मेह
दलदल राह में
चंचल बड़े जल-स्रोत
सारे खेत हैं जल-मग्न !
कुटियाँ भग्न-खंडित,
थरथराता वायुमंडल
विश्व-प्रांगण मध्य हलचल -
गाय बकरी भैंस - पशु,
जन - वृद्ध, शिशु, रोगी, तरुण,
भू तरल पर
पेट में घुटने गड़ाये
सिहरते
केश भूतों-से बिखेरे
वेष भिक्षुक-सा बनाये
काटते भीषण अभावों की
करुण युग-रात्रि क्षण-क्षण,
सह रहे बर्बर-नरक सम यातनाएँ !
दुःख दाहक पा कभी रोते
कृशित-तन नग्न मरणासन्न शिशु
तब विश्व की
दुर्गन्ध सारी गंदगी से युक्त
आँचल को उठा कर
शुष्क स्तन पर नारियाँ
शोषण करातीं खून का !
है क्या यही विद्रोह की स्थिति ?
भर गया अब
कष्ट के दुर्दम पवन से
क्रूरता अन्याय का बैलून !
निश्चय -
पास है विस्फोट का क्षण,
दे रहा प्रति पल
यही संकेत !
आवाहन
जगत में क्रांति का अब
हो रहा मुखरित निरंतर !
चल पड़ी है
दूर से आँधी भयंकर
जन-विजय की कामना भर !
बेड़ियाँ परतंत्रता की
और कड़ियाँ हर तरह की
झनझनातीं टूटने को,
हर दमित अब छूटने को !
दे रहा दृढ़ स्वर सुनायी
मुक्त नवयुग के प्रखर संदेश का,
है प्रतिचरण
नव क्रांति-पथ पर
नव-सृजन की नींव का
मज़बूत पत्थर !
चल रहा क्रम
भ्रम न किंचित
गिर रहा आकाश से हिम,
आ रहा देता निमंत्रण
शीत का सन्-सन् प्रभंजन !