Last modified on 1 अप्रैल 2011, at 10:01

हवा में कीलें-3 / श्याम बिहारी श्यामल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:01, 1 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्याम बिहारी श्यामल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> जब कभी भ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब कभी भी
चढ़कर दरख़्त पर
मैंने देखा है एक साथ
समूची लम्बी सड़क को
मुझे दिखा है साफ़-साफ़
हर बार
धड़कता हुआ साँप
फैला हुआ
पसरा हुआ
ज़हर से भरा हुआ,
रग-रग ज़हरीला

साँप कि जिसकी
पूँछ है शहर की तरफ़
मुँह वाला हिस्सा
छू रहा है
मेरे गाँव का सिवान

या कि इसके दोनों तरफ मुँह हैं ?
मुझे शंका है भाई
ज़रूर ही यह है दुमुँहा ही

मैं बच्चा था तब
काली नहीं हुई थी
हमारे गाँव की यह सड़क
बाद में जब पक्की हुई
तब लगने लगी ऐसी

मैं कोई भ्रम नहीं
उड़ा रहा हूँ
हर रोज़ सुबह-शाम
चढ़कर दरख़्त पर
तौलता हूँ
बार-बार अपनी नज़र
मैं झटक नहीं पा रहा हूँ
अपनी दहशत

यह सड़क मुझे
दिख रही है हर बार
साफ़-साफ़ साँप