प्रेम की पेंगें बढ़ाती युवती / मुसाफ़िर बैठा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:13, 3 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुसाफ़िर बैठा |संग्रह=बीमार मानस का गेह / मुसाफ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उस दुकान पर वह
आती जाती है रोज ब रोज कई कई बार
तकरीबन पचीस घरों को लांघ
टंग गया कहीं है उसका मन
जबकि रास्ते में तीनएक दुकानों को
छोड़ आती है वह
अपने घर के पास ही

अपने मनप्रीत के घर की
गली से गुजरते वक्त
उसके लब गुनगुनाने लगते हैं यकायक
कोई गीत-फिल्मी या कि लोक
जो उसके आसपास आ
मंडराने की पक्की सूचना होती है
और मिलने का न्योता भी
लड़के के लिए

इंतजार आकुल लड़का निकल आता है
फौरन घर से बाहर और
सड़क की राह दौड़ जाती है
उसकी नई उगी निगाहें बरबस
और लख लेती हैं अपने अभीष्ट को

दुकान से लौटती लड़की का अल्हड़ दुपट्टा
बार बार सरकता संभलता है
जैसे किसी की खातिर

नजदीक होती जाती है
लड़के से लड़की
और गली मानुस-सून पाने पर
दोनों की कुछ मूक कुछ मुखसुख कुछ देहछू बातें
हो जाती हैं चट चुटकी में
किसी के द्वारा यह गुरु चोरी
देखे पकड़े जाने के भय बीच
और लड़की के लौटते डग बढ़ जाते हंै झट
बेमन ही अपने घर की ओर

देखें
दो युवा दिलों की
जगभीत बीच जारी यह नेहबंध
क्या महज कच्ची कसती देह का
अंखुआता आकर्षण है
या आगे बढ़ सच्ची लगी की ओर
पेंगें बढ़ते जाने का विहंसता दर्पण है ।

2008

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.