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साठ साल के धूप-छाँही रंग-2 / विद्याभूषण

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इस सुरमई मौसम में
मुश्किलों की बहंगी ढोती ज़ि‍न्दगी
सि‍हरती है ।
अतृप्त स्वाद, रेशमी स्पर्श,
मनहर दृश्य, गुलाबी गंध
और घटाटोपी कुहासे में
अनगि‍नत ऐन्द्रिक भूचाल
सदाबहार कामनाओं को
रसभरे इशारे करते हैं ।

जि‍स प्रेम-ग्रंथ का साठवाँ संस्करण
प्रस्तुत है मेरे सामने,
उसमें अनगि‍नत अनलि‍खी कवि‍ताएँ
ओस-अणुओं में दर्ज़ हैं ।
कुछेक लि‍खी गई थीं गुलाबी कि‍ताबों के
रूपहले पन्नों पर ।
कई अनछपी डायरि‍याँ
संस्मरणों में ढल गई हैं,
और तमाम गीली स्मृ‍‍ति‍याँ
उच्छवासों में वि‍सर्जि‍त हो चुकी हैं ।

ओस में नहाई गुलाबों की घाटी
भली लगती है मुझे आज भी,
मगर फूल तोड़ना सख़्त मना है यहाँ ।
मि‍त्रो, वर्जित फलों की सूची लंबी है,
और सभाशास्त्र में उनके स्वाद
सर्वथा नि‍षि‍द्ध घोषि‍त हैं ।
आदम और हव्वा की पीढ़ि‍याँ
एक सेब चखने की सजा
भुगतती रही हैं बार-बार ।
लेकि‍न स्मृति‍‍याँ नि‍र्बंध शकुंतलाएँ हैं,
उनका अभि‍ज्ञान रचता हूँ मैं ।