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शर्त / विद्याभूषण

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एक सच और हज़ार झूठ की बैसाखि‍यों पर
सि‍यार की ति‍कड़म
और गदहे के धैर्य के साथ
शायद बना जा सकता हो राजपुरूष,
आदमी कैसे बना जा सकता है ?

पुस्तकालयों को दीमक की तरह चाट कर
पीठ पर लाद कर उपाधि‍यों का गट्ठर
तुम पाल सकते हो दंभ,
थोड़ा कम या बेशी काली कमाई से
बन जा सकते हो नगर सेठ ।

सिफ़ारि‍श या मि‍हनत के बूते
आला अफ़सर तक हुआ जा सकता है।
किं‍चि‍त ज्ञान और सिंचि‍‍त प्रति‍भा जोड़ कर
साँचे में ढल सकते हैं
अभि‍यंता, चिकित्सक, वकील या क़लमकार ।
तब भी एक अहम काम बचा रह जाता है
कि‍ आदमी गढ़ने का नुस्खा क्या हो ।

साथी ! आपसी सरोकार तय करते हैं
हमारी तहज़ीब का मि‍जाज़,
कि‍ सीढ़ी-दर-सीढ़ी मि‍ली हैसि‍यत से
बड़ी है बूँद-बूँद संचि‍त संचेतना,
ताकि‍ ज्ञान, शक्ति और ऊर्जा,
धन और चातुरी
हिंसक गैंडे की खाल
या धूर्त लोमड़ी की चाल न बन जाएँ

चूँकि आदमी होने की एक ही शर्त है
कि‍ हम दूसरों के दुख में कि‍तने शरीक हैं ।