भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेटे की मृत्यु के बाद / सरोज परमार
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:48, 6 अप्रैल 2011 का अवतरण
तकती रहती हैं
दो बुझी बुझी सी
पीली पीली सी
निस्तेज, रूआँसी सी
आँखें। तकती रहती हैं, बस तकती रहती हैं।
पीड़ा को बोझिल इतिहास उठाए
सूजी पलकों वाली
कोचों तक झिलमिल-झिलमिल
डबडबाये आकाश वाली
दो आँखें
बरसती भी नहीं।
मन के चूल्हे में
ममता की गीली लकड़ियाँ
सुलगती रहती है
धुआँ उठता रहा
आँसू सूखते रहे
जाले तनते रहे
बस रह गया
शून्य में बढ़ना
विवश भाव से तकना
बस तकना।