Last modified on 6 अप्रैल 2011, at 05:08

उतरूं ऊंडै काळजै / रवि पुरोहित

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:08, 6 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>उतरूं थांरै ऊंडै काळजै मारूं चुभ्यां ढूंढूं छिब म्हारी थिर मन-…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उतरूं थांरै
ऊंडै काळजै
मारूं चुभ्यां
ढूंढूं
छिब म्हारी
थिर मन-जळ में ।
जित्तौ उतरूं
बित्तौ बैठूं
गहरै तळ-अतळ
दाझूं
इण री कळ-झळ में
मन सांभळूं
चींत चितारूं
देखूं-निरखूं
हियै विचारूं
कठै पज्यौ मनमौजी भंवरो
इण छळ-बळ में ।
झींझ बाजै चित्त आंगणियै
होठां घूघरा नाचै
अबै प्रगटसी,
बांथां भरसी
थूं मन जळ-निरमळ में
भूल्यौ म्हैं भावां री लहरां
करतो रैयो किलोळ
मुगती री मनगत रै धकै
उळझ्यौ इण सळ-दळ में ।
चाहै उळझूं,
चाहै सुळझूं
जाणूं निस्चै मिळसी थूं
धुन है पक्की,
मत्तौ पक्को
हुयस्यां दो सूं अेक
इणी जग-कुळ में
उतरूं
थांरै ऊंडै काळजै
मारूं चुभ्यां
ढूंढूं छिब थांरी
थांरी यादां रै जंगळ में ।