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उतरूं ऊंडै काळजै / रवि पुरोहित

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उतरूं थांरै
ऊंडै काळजै
मारूं चुभ्यां
ढूंढूं
छिब म्हारी
थिर मन-जळ में ।
जित्तौ उतरूं
बित्तौ बैठूं
गहरै तळ-अतळ
दाझूं
इण री कळ-झळ में
मन सांभळूं
चींत चितारूं
देखूं-निरखूं
हियै विचारूं
कठै पज्यौ मनमौजी भंवरो
इण छळ-बळ में ।
झींझ बाजै चित्त आंगणियै
होठां घूघरा नाचै
अबै प्रगटसी,
बांथां भरसी
थूं मन जळ-निरमळ में
भूल्यौ म्हैं भावां री लहरां
करतो रैयो किलोळ
मुगती री मनगत रै धकै
उळझ्यौ इण सळ-दळ में ।
चाहै उळझूं,
चाहै सुळझूं
जाणूं निस्चै मिळसी थूं
धुन है पक्की,
मत्तौ पक्को
हुयस्यां दो सूं अेक
इणी जग-कुळ में
उतरूं
थांरै ऊंडै काळजै
मारूं चुभ्यां
ढूंढूं छिब थांरी
थांरी यादां रै जंगळ में ।