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मैं बना विद्याधर / पुरुषोत्तम अग्रवाल
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पुरानी क़िताब उलटते पलटते
पड़ी एकाएक निगाह
अरे !
यह तो पंख है
उसी सुनहरी तितली का
जिसके पीछे बरसों दौड़ा किया
मैं
एक पल पकड़ी ही गयी तितली
आह !
कैसी थरथराती छुअन
कैसे चितकबरे धब्बे सुनहरे पंख पर
जैसे धरती से फूटा इन्द्रधनुष
क़िताब कापी के पन्नों के बीच दबा
तितली का पंख विद्या देता है
बताया गया था मुझे
पंख नुचा तितली मरी
मैं बना विद्याधर !