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मेहनत का फ़ार्मूला / प्रमोद कुमार

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साइकिल में खाने का डिब्बा बाँधे
चींटियों की-सी कतार में वे आते हैं शहर ।

           
मकड़ी के जाले-से बिछे रास्ते
छिन्न-भिन्न कर देते हैं कतार को
मशीनों का जनतंत्र
हाथ-पाँव के बहुमत के लिए
मुख्य-मार्ग नहीं छोड़ता ।
       
         शुभ लाभ लिखती घड़ियाँ
इनकी ओर उलटी पड़ जाती हैं,

समय पकड़ने की यहाँ की होड़ में
वे दिन भर नाखूनी जाँचों से गुज़रते
कददू-सा ताज़ा दिखने की कोशिश में
अपनी सारी भूख को दाँतों से कूँच डालते हैं,

उनका काम उन्हें खाने के डिब्बे से
एक पल भी बाहर नहीं आने देता
वह उनके बच्चों से मिली उनकी सारी ख़ुशियों को
अपने इंजन में ईंधन-सा चुआ लेता है
औरतों की दी छाँह से
अपनी नंगी भट्ठियों पर पर्दा डाल लेता है,

अपने सवालों के जबाव खोजता
उनका परिवार रास्ता जोहता है एकटक,
अपने लोगों में लौटते हैं वे उन बच्चों की तरह
फार्मूलों के सही प्रयोग के बाद भी
                जिनके उत्तर ग़लत निकल आते हैं ।