भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मज़दूर के घर में बोली / प्रमोद कुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:42, 13 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रमोद कुमार |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> मज़दूर के घर में…)
मज़दूर के घर में
कोई दुभाषिया नहीं रहता
आप सुनना भर जानते हों
तो दीवारों को ढहाती
बोली निकलेगी एक
आपको बुलाने
वहाँ दिन में बाहर की रोशनी अन्दर
और रात में अन्दर की
सड़क तक पहुँचती है
खन-खन
बोलियाँ आप को समझा देंगी
कि आप घर के अन्दर जाकर बतियाएँगे
या एक बड़ा
न खुल सकनेवाला ताला देख
बाहर से ही लौट जाएँगे ।