भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम का आईना / विमल कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:44, 17 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= विमल कुमार |संग्रह=बेचैनी का सबब / विमल कुमार }} {{KK…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम मेरे लिए हो
एक आईना
उसके सामने मैं
देखता हूँ अपने चेहरे के पीछे
छिपा कोई चेहरा
उतारता हूँ अपना मुखौटा
और पर्दा
जो मेरी आत्मा को ढँके हुए है
एक-एक करके उतारता हूँ
अपने कपड़े और होता हूँ निर्वस्त्र
तुम मुझे ही नहीं
मेरी हड्डियों के पीछे छिपे झूठ को भी देख सकती हो यहाँ
देख सकती हो अगर है
मेरे मन में कोई लालच
कोई नफ़रत
कोई कमज़ोरी, कोई अतृप्त कामना
देख सकती हो मेरे सारे ज़ख़्म
मेरे सपने, मेरी अन्तहीन इच्छाएँ
मेरा अतीत, मेरी स्मृति
मेरा वर्तमान, मेरा टूटा हुआ घर
मेरी टूटी हुई बाँसुरी
मेरा उजाड़, मेरी घबराहट
मेरी भूलें, मेरे पाप और कुकर्म
मेरी बेचैनी
मेरी तमाम साँसे जो बीच-बीच में उखड़ जाती हैं
तुम्हारे लिए अकसर

दरअसल, यह शीशे का आईना नहीं है
जिसमें दिखाई देता है
सिर्फ़ चेहरा, कीलें और मुँहासे
यह दाढ़ी बनाने के लिए नहीं है
नहीं है सज-धज कर कहीं जाने के लिए
देखने के लिए अपने लिपस्टिक का रंग
यह है प्रेम का आईना
इसी आईने के सामने खड़ा हूँ वर्षों से
पता नहीं तुम मुझे कितना देख पाई हो
कितना समझ पाई हो
पर मैं भी चाहता हूँ
तुम्हें भी इसी तरह देखना
क्या मैं भी बन सकता हूँ तुम्हारा कोई आईना
क्या तुम दोगी मुझे कभी
इसकी इज़ाज़त !
क्या जानती हो तुम
हमारे-तुम्हारे बीच ‘सत्य’ को बचाने के लिए
कितना ज़रूरी हो गया है
यह आईना ।