101 से 110 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1
पद संख्या 101 तथा 102
(101)
जँाउ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित पावन जग, केहि अति दीन पियारे।1।
कौन देव बराइ बिरद- हित, हठि हठि अधम उधारे।
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे।2।
देव, दनुज, मुनि,नाग मनुज सब, माया -बिबस बिचारे।
तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे।3।
(102)
हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हों।
साधन-धाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों।1।
कोटहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।
तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार।2।
बिषय-बारि मन -मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।
ताते सहौं बिपति अति दारून, जनमत जोनि अनेक।3।
कृपा-डोरि बनसी पद अंकुस, परस प्रेम-मृदु-चारो।
एहि बिधि बेेधि हरहु मेरो दुख, कौतुक राम तिहारो।4।
हैं श्रुति-बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहारै।
तुलसिदास येहि जीव मोह-रजु, जेहि बाँध्यो सोइ छोरै।5।