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राम / सुरेश सेन नि‍शांत

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बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस राम में
बहुत गहरे तक
मेरे अंतस में बैठी है
मानस की चौपाइयाँ गाती
रामलीला की वह नाटक-मंडली
 
कसकर पकड़े हुए हूँ
दादी माँ की अँगुली
लबालब उत्साह से भरा
दिन ढले जा रहा हूँ
रामलीला देखने
 
बहुत गहरे तक
दादी माँ की गोद में मैं धँसा हुआ हूँ
नहा रहा हूँ
दादी की आँखों से
झरते आँसुओं में
राम वनवास पर हैं
 
राम लड़ रहे हैं
राक्षसों से
राम लड़ रहे हैं
दरबार की लालची इच्छाओं से
राम लड़ रहे हैं अपने आप से
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस राम में
बचपन में पता नहीं
कितने ही अँधेरे भूतिया रास्ते
इसी राम को करते हुए याद
किए हैं पार
बचाई है इस जीवन की
यह कोमल-सी साँस वह
राम
जिसे ‘छोटे मुहम्मद’ निभाते रहे
लगातार ग्यारह साल
कस्बे की रामलीला में
छूती थीं औरतें श्रद्धा से जिसके पाँव
अभिभूत थे हम बच्चे
उस राम के सौंदर्य पर
पता नहीं कब बंद हो गईं
वे रामलीलाएँ
पता नहीं कब वह राम
मुसलमान में हो गया परिवर्तित
डरा-डरा गुज़रता है आजकल
रामसेवकों के सामने
उस रामलीला के पुराने
मंच के पास से वह राम
 
वैसे मेरा वह राम
मानव की चौपाइया
आज भी उतनी तन्मयता से गाता है
उतनी ही सौम्य है
अभी भी उसकी मुस्कान
उतना ही मधुर है
अभी भी उसका गला
पर दिख ही जाती है उदासी
उसकी आँखों में तिरते
उस प्यार-भरे जल में छुपी
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस शाम में