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पिता / विष्णु विराट

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मत हमसे पूछिए कि कैसे जिए पिता?

बूँद-बूँद से भरा किए घट खुद खाली होकर
कांटे-कांटे जिए स्वयं हमको गुलाब बोकर,
हमें भगीरथ बन गंगा की लहरें सौंप गए,
खुद अगस्त्य बन सागर भर-भर आँसू पिए पिता।

झुकी देह जैसे झुक जाती फल वाली डाली,
झुक-झुक अपने बच्चों की ढूँढ़े हरियाली,
लथपथ हुए पसीने से लो, कहाँ खो गए आज
थके हुए हमको मेले में कांधे लिए पिता।

बली बने तो विहंस दर्द के वामन न्यौत दिए,
कर्ण बने तो नौंच कवच कुंडल तक दान किए,
नीलकंठ विषपायी शिव को हमने देखा है
कालकूट हो या कि हलाहल हँस-हँस पिए पिता

तुम क्या जानो पिता-शब्द के अंतर की ज्वाला,
कितना पानी बरसाता बादल बिजली वाला,
अंधकार में दीपावलि के पर्व तुम्हीं तो थे
घर आँगन देहर पर तुम ही जलते दिए पिता।

मंदिर मस्जिद गिरजा, गुरुद्वारों में क्या जाना,
क्या काबा, क्या काशी - मथुरा बस मन बहलावा
जप तप जंत्र मंत्र तीरथ सब झूठे लगते हैं
ईश्वर स्वयं सामने अपने आराधिए पिता।

कुशल-क्षेम पूछने स्वप्न में अब भी आते हैं,
देकर शुभ आशीष पीठ अब भी सहलाते हैं,
हम भी तुम से लिपट-लिपट कर बहुत-बहुत रोए
देखो अंजुलि भर-भर आँसू अर्पण किए पिता।

मौन हुए तो लगा कि मीलों-मीलों रोए हैं,
शरशैया पर जैसे भीष्म पितामह सोए हैं,
राजा शिवि की देह हडि्डयों में दधीचि बैठा
दिए-दिए ही किए अंत तक कुछ ना लिए पिता।

हमसे मत पूछिए, चिता आँखों में जलती है
हमसे मत पूछिए हमारी जान निकलती है
हमसे मत पूछिए कलेजा कैसे फटता है
बिना तुम्हारे फटे कलेजे किसने सिए पिता।