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होश में आए / वीरेंद्र आस्तिक
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नींद में हम
प्रार्थनाएँ कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए
भाषणों में सार्थक
शब्द कुछ जोड़े नहीं
उठ पड़े कुछ प्रश्न तो
मौन थे ओढ़े वही
शून्य-शिखरों की
सभाएँ कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए
मूर्तियों-से शब्द हैं
कौन खोले अर्थ को
कुछ तिलक कुछ पोथियाँ
रट रहीं हैं व्यर्थ को
सत्यनारायण
कथाएँ कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए
हम हिमालय पर चढ़े
हाथ खाली आ गए
तीर्थ निकले रेत के
साथ सब भटका गए
छाँइयों की परिक्रमाएँ-
कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए