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एक और सुबह / के० शिवारेड्डी

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सुबह-सवेरे कॉफ़ी का स्वाद लेते हुए
नेरूदा की कविताओं को
याद करना कितना अद्भुत्त है।
जैसे किसी नए जीवन में
प्रवेश कर रहे हों हम
मन और शरीर हल्का होकर
सुबह के कुहासे में गुम हो जाता है

सभी घरों के आगे भिन्न रंगों के पत्ते गिरकर
खूबसूरत कलमकारी में रूपायित होती है
एक गृहिणी कमर में हाथ रख
उनींदापन और आलस्य को झाडू लगा रही है।
पौधे , पेड और फूलों पर दयापन सा
पतला कुहरा ठहर गया,
शायद सुबह को सब कुछ
अपनी स्वाभाविक कठोरता खोकर

बडे शान से मृदुल बन जाता है
गृहिणियों , बच्चे, पिल्लों और चिडियों की
पहली जागृत सुंदरता चकित करनेवाला है।
हम बिस्तरों पर पिघलकर और भाप छोड
तालाबों की तरह कोमलता से हिलते हैं
वे हाथ हमारे आंगन को
साफ करने के लिए बढ रहे हैं
कुछ रंगोली बनाकर चले जाते हैं और
कुछ चाबुक लेकर निकलते हैं।
तब तक हम दाडिम के पेड के पास
इकटठे हो जाते हैं,
सर्दी की आग, हाथ पांव , चेहरे को तापित कर
हम में आग का स्वागत करते हैं।
किसी मॉं ने उॅंगली से
आसमान में छेद किया होगा।
मुटठी को कसकर धीमा रेाता हुआ
एक सुंदर बच्चा हमारे सिर के उपर प्रकट होगा ।
यदि दुनियाके सारे कवि
स्ुबह की वेला पर एक कविता लिखेंगे
फिर भी यह अनछुआ, अनर्सूंघा
विलक्षण और मोहक रहेगा ।
पूरा शरीर एक छोटी सी
कविता में सिकुडकर आगे बढेगा
जो कोर्इ्र भी हो , उसे अंजुली भर पानी लेकर
जिंदगी के प्रति श्रृद्धांजलि अर्पित कर जीना है।

मूल तेलुगु से अनुवाद : संतोष अलेक्स