भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तू / ओएनवी कुरुप

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:44, 22 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओएनवी कुरुप |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <Poem> यहाँ पहुँचते वस…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यहाँ पहुँचते वसंत की जीभ को
तूने उखाड़ दिया और
चिडियों के चोंच से
कोई आवाज़ नहीं निकलती

तूने वसंत के सौभाग्य को
हड़प लिया
देख
अब यहाँ गंधहीन फूल खिले हैं

नदी में तैरते मछली-परिवार को
तूने तबाह कर दिया
नदी भी तेरे द्वारा तोड़े गए
दर्पण के टुकडों-सी
बिखरी पडी हैं

तू मनुष्य को धीमी गति से मरने की
गोलियाँ बेचकर
धनी बना
और अब ख़ुद दवा के इंतज़ार में है

तू साँस लेता है हवा में
और पेयजल में
मृत्यु का चारा टाँगता है
जिस टहनी पर बैठा हुआ है
उसी को ख़ुद काटता है

तू आँखें मलते उठते शहर को
विषैली-गैस का कफ़न ओढ़ाकर
हमेशा के लिए सुलाता है

अगली शताब्दी का
इंतज़ार करती काली चिडिया का
गला घोंटता है तू
निषाद ! बंद कर यह सब !

मूल मलयालम से अनुवाद : संतोष अलेक्स