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" माया" श्रृंखला- ३ /रमा द्विवेदी
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१-माया से तख्तेताज भी,
माया बदल दे ताज भी,
माया पलभर में बदल दे,
ज़िन्दगी का साज भी॥
२-आकूत माया से ही देखो,
इक अजूबा बन गया।
मौत दे दी कितनों को?
पर नाम फिर भी कर गया॥
३-ताज की इक-इक मीनार,
कितनी लाशों पर टिकी?
माया का यह मकबरा भी,
रक्त पी कर बन सकी॥
४-माया की संगमरमर जमीं पर,
अश्रु-जल दिखता नहीं ।
हर कोई है फिसल जाता,
कुछ रीढ़ पर टिकता नहीं॥
५-अश्रु भी बिक जाते हैं,
माया के दरबार में।
चीखों का कितना मूल्य है?
सांसों के व्यापार में॥
६-जीते जी कीमत नहीं कुछ,
माया के बाज़ार में।
लाशों की कीमत लगे है,
एक,दो,तीन लाख में॥