डोली / महेश चंद्र पुनेठा
उस दिन
जब सजाई जा रही थी डोली
दुल्हे की आगवानी के लिए
रंग-बिरंगी पताकाओं से
चनरका की यादों की परतें
खुलने लगी
चूख के फाँकों की मानिंद-
सबसे पुरानी डोली है यह
इलाके भर में
बहुत कुछ बदल गया है तब से
नहीं बदली तो यह डोली ।
न जाने कितने बेटियों की
विदाई में छलक आए
आँसुओं से भीगी है यह डोली ।
न जाने कितने रोगियों की
अस्पताल ले जाते
कराहों से पड़पड़ाई है यह डोली ।
न जाने कितनी प्रसवाओं को
सेंटर ले जाते
अधबिच रस्ते में ही फूटी
नवजातों की
किलकारियों से गूँजी है यह डोली ।
सर्पीली-रपटीली पगडंडियों में
धार चढ़ते
युवा कंधों की खड़न
और चूते पसीने की सुगंध बसी है इसमें
उनके कंधों में पड़े छाले
देखे हैं इसने ।
गाँव के हर छोटे-बड़े के
सुख-दुख में साथ रही है यह डोली
हर किसी के
साथ रोई-हँसी है यह डोली ।
आज भले जल्दी ही
चिकनी-चिकनी सड़कों में
दौड़ने वाली हो लखटकिया नैनो
हमारी इन उबड़-खाबड़
चढ़ती-उतरती पगडंडियों की
नैनो तो है, बस यह डोली ।