भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मतीरे / गिरिराज किराडू

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:45, 27 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गिरिराज किराडू }} {{KKCatKavita‎}} <poem> ऊँट की निगाह में राह…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऊँट की निगाह में राहगीर रेत का पुतला है । रेगिस्तान के ख़याल में ऊँट पानी का पैकर है –- बस की खिड़की से बाहर देखते हुए अक़्सर ऐसी बातें बुदबुदाने वाली श्रीमती अंजू व्यास जो चार बरस से हर सुबह सात बजे की बस से उतरकर आती थीं स्कूल और साढ़े बारह की बस पकड़कर जाती थीं शहर, अपने घर आज सुबह ऐसे उठीं कि घर को बस समझकर उसी में बैठ गयीं और एक घंटे बाद जब उतरीं स्कूल बंद हो चुका था -– उनकी क्लास के बच्चे वहाँ मतीरे बेच रहे थे मतीरे के मन में बच्चे खेत के बिजूके हैं श्रीमती अंजू व्यास ने सोचा ।
बच्चों से पता चला बाद में, यही वो आख़िरी ख़याल था जो उनके मन में आया । मतीरे तो ख़ैर वो कभी खरीदती ही नहीं थीं ।