भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुद को छुपा रहा है तू/रमा द्विवेदी

Kavita Kosh से
Ramadwivedi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:25, 30 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=रमा द्विवेदी }} <poem> मेरे ही घर से मुझ को लेके जा र…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मेरे ही घर से मुझ को लेके जा रहा है तू
रखोगे ख्याल हरदम वादे भी कर रहा है तू।

जब तेरे घर में आकर हम हो गए तुम्हारे,
बदला मिज़ाज़ तेरा मुझको सता रहा है तू।

भूले वो अर्चनाएं , भूले वो सात फेरे .
प्रणय के इस अनुबंध को झूठा बता रहा है तू।

तेरे बदलते रूप का कारण समझ सके न हम,
गिरगिट सा रंग बदलकर खुद को छुपा रहा है तू।

अहसास को हमारे पलभर में रौंद डाला,
पत्थर बना के अब क्यों अरमां जगा रहा है तू।