Last modified on 4 मई 2011, at 04:17

आता है नजर / सुनील गज्जाणी

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:17, 4 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुनील गज्जाणी |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem>संपेरा, मदारी …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

संपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का,
बतलाओ जरा कहां आता है नजर ?
खेल बच्‍चों का सिमटा कमरों में अब,
बलपण को लगी कैसी ये नजर ।
वैदिक ज्ञान, पाटी तख्‍ती, गुरू शिष्‍य अब,
किस्‍सों में जाने सिमट गए इस कदर,
नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरों मे,
फ्रेम में टंगा बस आदमी आता है नजर।
चाह कंगूरे की पहले होती अब क्‍यूं,
ध्‍ौर्य, नींव का कद बढ़ने तक हो जरा,
बच्‍चा नाबालिग नही रहा इस युग में,
बाल कथाएं अब कही सुनता आया है नजर।
अपने ही विरूद्ध खडे किए जा रहा,
प्रश्‍न पे प्रश्‍न निरुत्तर जाने मैं क्‍यूं,
सोच कर मुस्‍कुरा देती उसकी ओर
सच्‍च, मेरे लिए प्‍यार उसमें आता है नजर।
दिन बहुत गुजरे शहर सूना सा लगे
चलो फिर कोई दफन मुद्‌दा उठाया जाए,
तरसते दो वक्‍त रोटी को वे अक्‍सर
सेंकते रोटियां उन पे कुर्सियां रोज आती है नजर।