खुरदुरापन / महेश चंद्र पुनेठा
कवि मित्र केशव तिवारी के लिए
खुरदुरा ही है
जो जगह देता है किसी और को भी
पैर जमाकर खड़ा हुआ जा सकता है केवल
खुरदुरे पर ही
वहीं रूक सकता पानी भी ।
खुरदुरे पत्थर से ही
गढ़ी जा सकती हैं सुंदर मूर्तियाँ ।
उसी से ही खुजाता है कोई जानवर अपनी पीठ
खुरदुरे रास्ते ही पहुँचाते हैं राजमार्गों तक
परिवर्तन भी दिखता है खुरदुरे में ही
खुरदुरेपन के गर्भ में होती हैं अनेकानेक संभावनाएँ
ऊब नहीं पैदा करता है खुरदुरापन
खुरदुरी बातों में ही व्यक्त होता है जीवन-सत्य
सच्चा प्रेम करने वालों की बातें भी होती हैं खुरदुरी
और बुजुर्गों की भी
खुरदुरा चेहरा देखा है अनुभवों से भरा ।
देर तक महसूस होता है खुरदुरे हाथों का स्पर्श
खुजली मिटती है अच्छी तरह खुरदुरे हाथों से ही
खुरदुरे हाथों में ही होती है शक्ति सहने की भी
खुरदुरे हाथों में होता है स्वाद
खुरदुरे पैरों में गति
सरसों के फूलों से घिरे
हरे-भरे गेहूँ के सीढ़ीदार खेतों
और दूर पहाड़ी की चोटी में बने घर में
दिखाई देता है सौंदर्य उनका
सिल खुरदुरा
खुरदुरे चक्की के पाट
दाँत भी होते हैं खुरदुरे
कद्दूकस खुरदुरा
पहाड़ हैं कितने खुरदुरे
खुरदुरेपन में ही छुपी है इनकी शक्ति
रेगमाल की
खुरदुरी सतह से रगड़ पाकर ही बनती हैं सुंदर सतहें
बावजूद इसके सौंदर्यशास्त्र में
क्यों नहीं बना पाया खुरदुरापन अपना कोई स्थान
कहाँ है पेंच
किसने दिया यह सौंदर्यबोध
कितने कवि हैं पूरी आत्मीयता से जो कह सकते हों--
’अपनी खुरदुरी हथेलियाँ छिपाएँ नहीं
इनसे ख़ूबसूरत इस दुनिया में कुछ भी नहीं है।’
क्यों नहीं खुरदुरा स्पर्श रोमांचित कर पाता
क्यों नहीं आकर्षित कर पाता है इंद्रियों को