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कुहू / कीर्ति चौधरी
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दिन बीते कभी इस शाख पर
किसी कोयल को कूकते सुना था ।
तब से जब भी इस ओर आती हूँ
बार-बार कानों में वही 'कुहू'
गूँजती हुई पाती हूँ ।
जैसे मेरे मन के लिए
एक बार पा लेना ही हमेशा की थाती है ।
या वह कोयल की कूक है
जो अमराई में छा ही जाती है ।