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उन दिनों-2 / महेश वर्मा

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बातों की सड़क से उतरकर ख़यालों की पगडंडियाँ पकड़ लेते फिर सड़क को भूल जाते और चौंक कर कहीं मिलते कि बात क्या हो रही थी तो वह ख़यालों का ही चौराहा होता । जैसे एक गूँज से बनी सुरंग में अभिमंत्रित घूमते रहते और बाहर की कम ही आवाज़ें वहाँ पहुँच पातीं, कभी कोई आवाज़ आकर चौंका देती तो वह भी गूँज के ही आवर्त में अस्त हो जाता -- आवाज़ नहीं चौंक उठाना ।

उन दिनों बहुत कम बाहर आना होता था अपने डूबने की जगह से । धूप की तरह आगे-आगे सरकती जाती थी मौत, प्रायः वह खिन्न दिखाई देती । चाँद नीचे झाँकता भी तो फिर घबराकर अपनी राह पकड़ लेता, फूल उदास रहते । खिड़की कोई बंद दिखाई देती तो चाहते खड़े होकर उसे देखते रहें देर तक, देर जब तक शाम उतर न आए ।

डूबने से बाहर आते तो बाहर का एक अनुवाद चाहिए होता । इस बीच लोगों के मरने और विवाह करने की ख़बरें होतीं।