भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रमि रमिता सों गहि चौगानं / गोरखनाथ
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:48, 6 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोरखनाथ |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> रमि रमिता सों गहि चौ…)
रमि रमिता सों गहि चौगानं, काहे भूलत हो अभिमानं ।
धरन गगन बिच नहीं अंतरा, केवल मुक्ति भैदानं ।
अंतरि एक सो परचा हूवा, तब अनंत एक में समाया ।
अहरिण नाद नैं ब्यंद हथोड़ा,रवि ससि षालां पवनं ।
मूल चापि डिढ आसणि बैठा, तब मिटि गया आवागमन ।
सहज षलांण, पवन करि घोड़ा, लय लगाम चित चबका ।
चेतनि असवार ग्यान गुरु करि, और तजो सब ढबका ।
तिल कै नाके त्रिभवन सांध्या, कीया भाव विधाता ।
सो तौ फिरै आपण ही हूवा जाको ढूँढण जाता ।
आस्ति कहूँ ता कोई न पतीजै बिन आस्ति (अनंत सिध)क्यूँ सीधा ।
गोरष बोलै सुनौ मछिन्द्र हरै हीरा बीधा ।।