भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
राम-नाम-महिमा/ तुलसीदास/ पृष्ठ 4
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:30, 8 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=र…)
राम-नाम-महिमा-3
(95)
दानव- देव , अहीस-महीस, महामुनि -तापस, सिद्ध-समाजी।
जग-जाचक, दानि दुतीय नहीं, तुम्ह ही सबकी सब राखत बाजी।।
एते बड़े तुलसीस! तऊ सबरीके दिए बिनु भूख न भाजी।।
राम गरीबनेवाज! भए हौं गरीबनेवाज गरीब नेवाजी।।
(96)
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी ,भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।।
पेटको पढ़त , गुन गढ़त , चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी।।
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम, करि,
पेटही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
‘तुलसी’ बुझाइ ऐक राम घनस्याम ही तें ,
आगि बड़वागितें बड़भ् है आगि पेटकी।।