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पेड़ का दुख (कविता) / नरेश मेहन

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मुझे
रोक लिया था
कल पीपल के पेड़ ने
और कहा था
देखो मेरी तरफ
मैं
वही पेड़ हूँ
जिसकी टहनियों पर
लटक कर
तुम इतने बड़े हुए।
तुम गिरे थे
मेरे तने से
कई बार
चढ़े थे कई बार।
तुम्हारे नन्हें पैरों की
गुदगुदाहट
अभी भी मुझे याद है;
तुम खेला करते थे
कुरांडंडी
तपती दुपहरी में
फिर सोते थे
गहरी नींद
मेरे बदन की छाया में।
मैं कितना खुश रहता था
तुम्हारे साथ।
ये जो खुदे नाम
तुम देख रहे हो
यह तुम्हारे ही खोदे हुए है
मैंने इन नामों को
बहुत सहेज कर रखा हैं
अनायास
पीपल का पेड़ कराहा
और कहने लगा
क्या हो गया है
तुम्हें और तुम्हारे शहर को?
क्यों नहीं तोड़ते
मेरी टहनियां और पत्ते
उन पर क्यों नहीं लटकते
तुम्हारे बच्चे?
सच पुछो तो
मेरा तना
आजकल
बहुत तड़फता है
टहनियां उदास रहती है
नन्हें हाथों और पेरों के
कोमल स्पर्श के लिए।
भाई्!
कहो ना
अपने बच्चों से
मेरे पास आएं
'भले ही
ठोक जाएं
अपने नन्हें हाथों से
एक कील
या खोद जाएं
अपना नाम
मेरे बदन पर।
बहुत उदास था
पीपल का पेड़
रूआंसा हो कर
देख रहा था
छत पर लगे
डिस्क एण्टीना को
और
कान पर लगे मोबाईल को
मन ही मन
बुदबुदा रहा था
इसी ने छीनी है
मेरी खुशी
मेरे बच्चे मुझसे।