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ताई के लिए / नरेश अग्रवाल

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इतनी लम्बी दूरी तय करने के बाद
पहुँच ही गया तुम तक
न तुम्हें कुछ चाहिए था
और न ही मुझे कुछ
जुड़े रहे हम दोनों
कील के सहारे लकड़ी-लकड़ी से जैसे
और प्रेम-प्रेम में मिल गया
सब कुछ-हुआ मौन
याद नहीं कभी बैठा था मैं
इस तरह से तुम्हारे पास उस दिन
और पहचाना तुमने मुझे ठीक से
एक निश्छल बालक में
हो गया था मैं रूपांतरित
बिना बैठे गोद में खेल सकता था
एक बच्चे की तरह ही
मन भूल गया था चलना-फिरना
हिलना-डुलना और सोचना तक
बस बना रहा दास तुम्हारा
रह सकता था इसी तरह मैं दास बना
बहुत देर तुम्हारे पास
लेकिन इतनी ही देर की अनुमति दी थी
जो आस्तित्व करता था मुझ पर राज
फिर से भीड़ में खो गया मैं
एक एहसास तुम्हें दिलाकर
मैं तेरा न होकर भी जुड़ा हूँ तुमसे
इस भीड़ में भी खोजती रहेंगी आँखें हमारी
एक-दूसरे को ।