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प्रशंसा / नरेश अग्रवाल

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मैं कर सकता था प्रशंसा सबकी
एक बालू के कण से लेकर वृहद आकाश की
सब में हवा बनकर जिया था मैं
कहीं न कहीं इन सब में था मौजूद
क्योंकि जब भी बैठा था मैं इनके पास
पूरी तरह था इनका ही
और उनके ही कर्म बस शब्द थे मेरे
ये ही पैदा कर देते थे तरंगें मेरे मन में
जैसे तट के ही छोटे पत्थर नदी के जल में।