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प्रभुकी महत्ता और दयालुता/ तुलसीदास/ पृष्ठ 6

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गोपियों की अनन्य प्रेम

 ( छंद 134, 135)

(134)

जोग कथा पठई ब्रजको, सब सो सठ चेरीकी चाल चलाकी।
ऊधौ जू! क्यों न कहै कुबरी, जो बरी नटनागर हेरि हलाकी।।

जाहि लगै परि जाने सोई, तुलसी सो सोहागिनि नंदलालकी।।
जानी है जानपनी हरिकी, अब बाँधियैगी कछु मोटि कलाकी।।

(135)

पठयो है छपदु छबीलें कान्ह कैहूँ कहूँ।
 खोजिकै खवासु खासो कुबरी-सी बालको।।


 ग्यान को गढ़ैया, बिनु गिराको पढै़या,
 बार-खाल को कढै़या, से बढै़या उर-सालको। ।

 प्रीतिको बधिक , रस-रीतिको अधिक,
नीति -निपुन, बिबेकु है, निदेसु देस-कालको।।

 तुलसी कहैं न बनै , सहें ही बनेगी सब
 जोगु भयो जोगको बियोगु नंदलालाको।।