भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुराने जमाने का व्यंग्य / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:16, 9 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेश अग्रवाल |संग्रह=पगडंडी पर पाँव / नरेश अग्रव…)
उन दिनों राजा आते थे गॉंव में
होकर सवार अपने रथ पर
जिनके घोड़ों की टाप से
पूरा का पूरा गॉंव बजता था
एक ढोलक की तरह
घबराकर निकलते थे लोग घर से
और उठाते थे अपने हाथ
सर्कस के हाथी की तरह
फिर अपने दोनों पॉंवों को
मिट्टी में धंसाकर
चिंघाड़ते थे जोरों से
राजा की जय हो
जय हो राजाजी की
मन्त्र की तरह गूंजते थे ये स्वर
कुछ देर हवा में
फिर वापस लुप्त हो जाते थे
कुत्ते जाग जाते थे
इस बाघनुमा हमले से
और साइलेंसर के पाइप की तरह
लगते थे जोरों से भौंकने
वे पीछा करते थे रथ का
गॉंव के अन्तिम छोर तक
और राजा घुमाता रह जाता था
अपनी चमकती हुई तलवार चारों ओर हवा में
लेकिन अफसोस इन बहादुरों का
कहीं भी लिखा नहीं गया नाम
इतिहास की किताबों में ।