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विदाई / नरेश अग्रवाल

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एक पत्थर जो पड़ा है वर्षों से वहीं का वहीं
कभी विदा नहीं होता जलधारा के साथ
और एक दिन हार मान लेती है नदी
ना ही कभी विदा होते हैं उर्वरक धरती से
चाहे कितनी ही फसलें उगाई और काट दी जाती रहें,
तुम जो मेरे सीने से निकलती हुई धडक़न हो
जो एक दिन दो से तीन हुई थी
जहां भी रहोगी, कहीं की भी यात्रा करती हुई
फिर से लौट कर आओगी
नाव की तरह अपने तट पर
और हम फिर से मिलकर एक हो जाएंगे
और बातें करेंगे हमेशा की तरह
उन्हीं पुरानी कुर्सियों पर बैठ कर।