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अपने हित की बात / नरेश अग्रवाल

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बचपन में कहा गया था मुझसे
उस चांद को देखो
मैं केवल रोशनी को देखता रहा।
रोशनी के पीछे विवशताएं थी
और लोग एक-दूसरे पर गिरे हुए।
सडक़ से सिर्फ इतना ही देखा जा सकता है
फिर भी साहस था मुझमें अंधकार में देखने का
शायद सब अच्छी तरह से सो रहे होंगे
मैं सुबह की ओस में
ताजी हवा को देखता हूं
फूलों और पत्तों की खुशबू के पात्र में
अपने को समाये हुए
मैं जागकर सोचता हूं
फिर से अपने हित की नई बात
जिसे मैं जानता भी नहीं हूं अब तक
किंतु सोचता हूं क्या हो सकती है वो?