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सुबह की हवा / नरेश अग्रवाल

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यह सुबह की हवा कितनी अपनी है
इसमें ताजगी के सिवा कुछ भी नहीं
यह जरूर निर्मल पहाड़ों से आती होगी
या घने हरे- भरे जंगलों से
इस हवा की भी कोई जरूर पहचान होगी
पास इसके पहुंचते ही
आस-पास के पेड़ों के पत्ते भी टहलने लगते हैं,
हमारे साथ-साथ
अभी रोशनी थोड़ी झुकी हुई है
जैसे चुपके से जांच रही हो हमारी चुस्ती
और आती धूप को देखकर
तेज करते हैं हम अपने कदम
घर की ओर वापसी के लिए
आज का समय बस यहीं पूरा हुआ
इस ताजगी के सहारे लड़ते रहते हैं
अपनी थकान से देर रात तक।