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ढूँढ़ता हूँ मैं उन पेड़ों को / नरेश अग्रवाल

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जंगलों को छोड़ आने के बाद
सपाट रास्ते बचे रहेंगे हमारे पास
चारों तरफ समतल मैदान
और ढूँढ़ता हूँ मैं उन पेड़ों को
जिनकी टहनियाँ कभी गंदी नहीं होतीं
धुल जाती है हर शाम बारिश से
उनके पत्ते कभी सूखते नहीं हैं
क्योंकि उनमें रस अधिक है और वहाँ धूप कम
वे हरे-भरे हैं लगातार खड़े
कहीं भी झुकाव नहीं
बर्फ उन पर गिरती है
और लटकती है श्रृंगार की तरह
पानी के लिए आस-पास नदी है एवं झरने
एक पक्षी की पुकार को भी
आत्मसात् कर लेता है पूरा प्रदेश
और याद है मुझे
आकर यहाँ कितना शांत हो गया था मैं
कुछ भी बचा नहीं था कहने को किसी से।