भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घोड़े / नरेश अग्रवाल

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:24, 9 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जहां पर आंखें नहीं पहुंच पायेंगी
घोड़े वहां तक हमें ले जाएंगे
इन पर हम सवार
लेकिन लगाम इसके मालिक के पास
उसी की ठोकर की दिशा में ये चलते हैं
जब ऊंचाई आए तो थोड़ा आगे की तरफ झुक जाओ
जब ढलान पीछे की तरफ
इसी तरह से सामंजस्य बनाये रखना होता है इनके साथ
और देखते-देखते कितनी सारी दूरियां तय कर ली हैं हमने
सामने नदी है और घोड़े को लगी है प्यास
थोड़ी देर हम यहीं रुक जाते हैं
धीरे-धीरे टहलते हैं
तब तक यह घोड़ा करेगा आराम
और उसके चुस्त होते ही यात्रा शुरू
घोड़े के मालिक की जिद है
वह हमें छोड़ेगा नहीं, दिखलायेगा यहां की सारी चीजें
हम थके हुए होने पर भी कर देते हैं आत्मसमर्पण,
उसके आगे
और वापस लौटने पर
घोड़े के शरीर की गंध तक रह जाती है हमारे कपड़ों पर।