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रेगिस्तान / चित्रकार / नरेश अग्रवाल
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रेगिस्तान हो या पथरीले पहाड़
हरियाली फूटकर बाहर आ जाती है
जैसे वे आत्मा के रंग ही हों
थोड़े-थोड़े हरे रंग भरे हुए यहां
जिन्हें कभी ओस नसीब नहीं होगी
न ही बारिश।
फिर भी ये धीरे-धीरे बढ़ते रहेंगे
चमकते रहेंगे हमारी आंखों में समाकर।
जीवन एक से निकलता है
समा जाता है दूसरे में
यहां सुनसान सी दुनिया
रेत में भी रेत के कण उड़ते हुए
थोड़े से लोग मौजूद
बाजार से ऐतिहासिक चीजें खरीदते हुए
यहां के बाजार कभी नहीं बदलेंगे
वे छोटी-छोटी चीजें ही हमेशा बेचेंगे
और मेरे हाथों में जो तस्वीरें हैं
इन पुरानें अवशेषों की
यह इतिहास का एक पन्ना है
जिसे कागज में सुरक्षित
ले जा रहा हूं वापस ।