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काशी में महामारी/ तुलसीदास/ पृष्ठ 3

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काशी में महामारी-3

 ( छंद 173, 174)

(173)

ठाकुर महेस, ठकुराइनि उमा-सी जहाँ,
 लोक-बेदहूँ बिदित महिमा ठहर की।

भट रूद्रगन, पूत गनपति-सेनापति,
कलिकालकी कुचाल काहू तौ न हरकी।।

 बीसीं बिस्वनाथकी बिषाद बड़ो बारानसीं,
 बूझिये न ऐसी गति संकर-सहरकी।

कैसे कहै तुलसी बृषासुरके बरदानि ,
बानि जानि सुधा तजि पीवनि जहरकी।।

(174)

 निपट बसेरे अघ औगुन घनेरे, नर-
 नारिऊ अनेरे जगदंब! चेरी-चेरे हैं।

दारिद -दुखारी देबि भूसुर भिखारी -भीरू,
लोभ मोह काम कोह कलिमल घेरे हैं ।

लोकरीति राखी राम, साखी बामदेव जानि,
 जनकी बिनति मानि मातु! कहि मेरे हैं।

महामारि महेसानि! म्हिमाकी खानि , मोद-
मंगलकी रासि , दास कासीबासी तेरे हैं।।