भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वलय / किरण अग्रवाल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:53, 14 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसने कहा - वापस लौट जाओ
मैंने कहा - नहीं लौटूंगी
उसने कहा - ठोकर खाओगी
मैंने कहा - तैयार हूँ
वह चुप हो गया
मैं बोलती रही
वह वलय में खो गया
मैं उसे ढूँढ़ती रही
और एक दिन मैंने पाया
कि वह मेरे भीतर-बाहर चारों ओर है
व्याप्त है हर धड़कन में
छूता है मुझे
बतियाता है मुझसे
मेरा सबसे अधिक अपना है।