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जानकी -मंगल/ तुलसीदास / पृष्ठ 14

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।।श्रीहरि।।
    
( जानकी -मंगल पृष्ठ 14)
 
धनुर्भंग-2

 ( छंद 97 से 104 तक)

 बरिसन लगे सुमन सुर दुंदुभि बाजहिं।
 मुदित जनक, पुर परिजन नृपगन लाजहिं। 97।

महि महिधरनि लखन कह बलहि बढ़ावनु ।
 राम चहत सिव चापहिं चपरि चढ़ावनु।।

गए सुभायँ राम जब चाप समीपहि।
सोच सहित परिवार बिदेह महीपहि।।

कहि न सकति कछु सकुचति सिय हियँ सोचइ।
गौरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकोचइ।।

होत बिरह सर मगन देखि रघुनाथहिं।
फरकि बाम भुज नयन देत जनु हाथहि।।

धीरज धरति सगुन बल रहति सो नाहिन।
बरू किसोर धनु घोर दइउ नहिं दाहिन।।

अंतरजामी राम मरम सब जानेउ।
धनु चढ़ाइ कौतुकहिं कान लगि तानेउ। ।

 प्रेम परखि रघुबीर सरासन भंजेउ।
जनु मृगराज किसोर महागज भंजेउ।104।


( छंद-13)
 
गंजेउ सो गर्जेउ घोर धुनि सुनि भूमि भूधर लरखरे।
 रघुबीर जस मुकता बिपुल सब भुवन पटु पेटक भरे।।

 हित मुदित अनहित रूदित मुख छबि कहत कबि धनु जाग की।
 जनु भोर चक्क चकोर कैरव सघन कमल तड़ाग की।13।

(इति जानकी-मंगल पृष्ठ 14)

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