भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जानकी -मंगल/ तुलसीदास / पृष्ठ 17

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:57, 15 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=ज…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

।।श्रीहरि।।
    
( जानकी -मंगल पृष्ठ 17)

विवाह की तैयारी-2

 ( छंद 121 से 128 तक)

गे जनवासहिं कौसिक राम लखन लिए।
हरषे निरखि बरात प्रेम प्रेमुदित हिए।121।

हृदयँ लाइ लिए गोद मोद अति भूपहि।
कहि न सकहिं सत सेष अनंद अनूपहिं।।

रायँ कौसिकहि पूजि दान बिप्रन्ह दिए।
राम सुमंगल हेतु सकल मंगल किए।।

 ब्याह बिभूषन भूषित भूषन भूषन।
बिस्व बिलोचन बनज बिकासक पूषन।।

मध्य बरात बिराजत अति अनुकूलेउ ।
मनहुँ काम आराम कलपतरू फूलेउ।।

पठई भेंट बिदेह बहुत बहु भाँतिन्ह।
 देखत देव सिहाहिं अनंद बसरातिन्ह।।

 बेद बिहित कुलरीति कीन्हि दुहुँ कुलगुर।
 पठई बोलि बरात जनक प्रमुदित मन। ।

जाइ कहेउ पगु धारिअ मुनि अवधेसहि।
चले सुमिरि गुरू गौरि गिरीस गनेसहि।128।

(छंद-16)


चले सुमिरि गुर सुर सुमन बरषहि परे बहुबिधि पावड़े।
सनमानि सब बिधि जनक दसरथ किये प्रेम कनावड़े।।

गुन सकल सम सम समधी परस्पर मिलन अति आनँद लहे।
जय धन्य जय जय धन्य धन्य बिलोकि सुर नर मुनि कहे।16।


(इति जानकी-मंगल पृष्ठ 17)

अगला भाग >>