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सबक़ / शरद रंजन शरद

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रूसी भरे बालों की तरह झरते-गिरते

कमज़ोर और कठिन समय के हिसाब के लिए

अपने बच्चे की पुरानी स्लेट है मेरे पास

जिस पर अंक की तरह लिखा है एक अक्षर

उसी के छापे पड़े हैं मेरे पूरे बदन पर


कोहरे में लिपटी पथरीली ज़मीन पर उगाना कोंपल

नाज़ुक नसों से उकेरना शिलालेख

सहज दिखने वाली दुनिया का सबसे दूभर है काम

मगर मैं लगा रहना चाहता हूँ इसी में अटूट


वह आख़िर एक ही तो है आखर

जिससे बना शब्द सबसे ज़रूरी और सुन्दर

उसी पर लेखनी की तरह फिराता रहता हूँ अपनी उँगली

पहले लिखता जिसे बच्चा सोच-समझकर


इस जीवन और जगत की नश्वरता के विरुद्ध

सच की यही एक उँगली है मेरे पास

जानता हूँ जो गलेगी नहीं कभी

घूमती रहेगी अक्षर के अक्ष पर

जैसे चलती रहती है पृथ्वी निरन्तर।