भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सब दिन नया दिन / सूरज
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:01, 16 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरज |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> रौशनी अपने गुच्छे में ल…)
रौशनी अपने गुच्छे में लपेटती है
फूल की पँखुरियों-सा ताज़ादम दिन
हो नमक धुली सुबह और बीती रात
तकरार हो / वार हो पर बची रहे इतनी
समझदारी जितना बीज-पराग रह जाता है
जाते हुए एक फूल से दूसरे फूल तक
मन तृप्त हो भूख सिमट आए अँजुरियों में
रोटी का सच्चा रंग रहे मेरी आँखो में
गवाह की तरह, करते हुए कोई भी करार
एक दिन बस एक दिन नहीं होता
वर्षों के मकड़जाल का सुनहला धागा
किसी एक दिन ही मिलता है इंतज़ार का खोया
पाया रास्ता एक दिन ही अलविदा की डगर
वर्तमान के कोई एक दिन पड़ता है
नशे में चूर वर्षों वर्ष के निचाट पर
हथौड़े की तरह