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काली रात / समीर बरन नन्दी
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प्रेयसी रही है रात
निहत्था अकेला जब हुआ हूँ उसी को लगाया है गले
शरणार्थी होने से अदिगंत सब खंड-खंड हो गया है
उसी की गोद मे सर रखा, दिलासा पाया ।
रात ही थी जब कहा गया था मुझसे -- तुम ब्राह्मण पात्र नहीं
रात में ही चली थी गोली |
वो रात ही थी जब पहुँचे थे भागलपुर सेंट्रल जेल
और उस रात भी जब माँ कुएँ में कूद मरी ।
वो भी रात ही थी, जब ट्रेन में लटक कर
सतहत्तर में जे.एन.यू पहुँचा,
अंत की चमक लिए कविताएँ लिखवाई है उसने मुझसे
कैसे कहूँ उसे काली रात ।