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ज़रूरत / रेशमा हिंगोरानी

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तुझ तक पहुँचने की आरज़ू,
इक दीवानगी की शक्ल ले रही है!
मेरी बेबाक़ तमन्ना भी,
इक मजबूरी सी बन रही है!
मैं दूर खड़ी,
इस तड़प को,
अपनी फ़ितरत<ref>स्वभाव</ref> में,
शामिल होते,
देखती हूँ…
ज़िंदा रहने की आदत,
रफ्ता-रफ्ता<ref>धीरे-धीरे</ref>,
इक ज़रूरत में तब्दील हो रही है!

शब्दार्थ
<references/>